Wednesday 13 January 2016

श्रीलक्ष्मण जी ज्ञान और क्रोध|


जय रामजी की |

महाराज जनक को सीताजी हल चलाते हुए प्राप्त हुई| और सीताजी महाशक्ति हैं| जो शिवजी अपना धनुष दोनों हाथो से उठाते थे वो धनुष माँ शक्ति ने एक हाथ से उठा कर उसके नीचे की जमीन की सफाई कर दी| जब जनकजी ने यह देखा तो समझ गए की यह महाशक्ति हैं| तभी उन्होंने प्रण किया की इस महाशक्ति को शक्तिमान के सुपुर्द कर देना ही उनका कर्तव्य है| अत: जो कोई भी इस शक्तिशाली धनुष को तोड़ेगा वह ही शक्तिमान होगा| जनकजी का भाव था की जैसे रास्ते में हमे कोई वस्तु मिल जाए तो हमारा कर्तव्य है की हम उस वस्तु को उस वस्तु के स्वामी तक पहुचाये| या हम घोषणा कर देते हैं की कोई प्रमाण देकर अपनी वस्तु को ले जाएँ| महाराज जनक को शक्तिमान के प्रमाण की आवशकता थी|
जब कोई भी इस धनुष को तोड़ नहीं पाता तो वह दुखी होकर कहते यह पृथ्वी वीरो से खाली हो चुकी है और मुझे लगता है मेरी कन्या कुंवारी ही रह जायेगी और मैंने प्रण लेकर अपने आप को उपहास का पात्र बना लिया|
जनकजी की यह बात सुनकर लक्ष्मणजी को क्रोध आता है और बोलते हैं कि इस धनुष को मै ऐसे तोड़ सकता हूँ जैसे एक हाथी एक पेड़ की टहनी को तोड़ता है| उपस्थित लोग लक्ष्मणजी की इस बात को बहुत अनुचित मानते हैं क्योंकि इस धनुष के टूटने का प्रकरण तो माता सीता के विवाह से जुड़ा है परन्तु तुलसीदास जी लिखते हैं की यह सुनकर माता सीता और प्रभु श्रीराम अत्यधिक प्रसन्न होते हैं क्योंकि ये जानते हैं की लक्ष्मणजी किस ऊँचे ज्ञान से यह बात कह रहे हैं जो की इस समय का सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी महाराज जनकजी भी नहीं समझ पा रहे| लक्ष्मणजी का तात्पर्य था कि माता सीता और प्रभु श्रीराम का विवाह तो शाश्वत है, इसका धनुष टूटने से कोई सम्बन्ध नहीं है, परब्रह्म ईश्वर ने अपने आप को दो भागो में विभाजित करके एक भाग को दशरथजी के और दुसरे भाग को जनकजी के यहाँ अवतरित किया है, अन्यथा ये तो सदैव से एक ही हैं| अगर कोई यह कहे की आज सुबह मुर्गे ने बाग़ नहीं दी तो सवेरा नहीं होगा| मुर्गे की बाग़ से सवेरा होने का कोई सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार धनुष टूटने से विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है| ब्रह्म और शक्ति का विवाह जनकजी के कराने पर ही होगा क्या? ये विवाह तो शाश्वत है|
इस सभा में लक्ष्मणजी ने दो विभूतियों को फटकाराएक थे ब्रह्मज्ञानी महाराज जनक और दुसरे उस समय के सबसे शक्तिशाली भगवान् परशुरामजी| एक को इसलिए की उसने कहा धनुष क्यों नहीं टूट रहा और परशुरामजी को इसलिए की वो बोले धनुष क्यों टुटा|
परशुरामजी पर क्रोध करने का तात्पर्य था कि महाराज जनक ने ये पहले ही घोषणा करी हुई थी कि जो भी आमंत्रित व्यक्ति इस धनुष को तोड़ेगा उससे माता सीता का विवाह होगा, ये बात भगवान् परशुरामजी को विदित थी तो उन्हें पहले ही महाराज जनक को मना करना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भगवान् परशुरामजी को शिवजी के धनुष टूटने का स्वप्न में भी विश्वास नहीं था| यह धनुष शिवजी का था जब उनकी ममता इस धनुष से हट गयी तभी तो शिवजी ने यह धनुष महाराज जनक को दिया था और इसके टूटने पर सबसे अधिक ख़ुशी भी शिवजी को हुई| भगवान् परशुरामजी ने मन ही मन जनकजी को कहा कि आपने धनुष पर बाण खीचने के लिए क्यों नहीं प्रण किया इसे तुडवाया क्यों, तो जनकजी ने मन ही मन उत्तर दिया कि शिवजी ने केवल धनुष ही दिया था इसके साथ कोई तीर बाण नहीं दिया था अत: केवल धनुष का टूटना ही आवश्यक है| जिसका धनुष है उसकी ममता इस पर नहीं है तो भगवान् परशुरामजी की ममता का कोई महत्व नहीं है|
श्रीरामजी से जब पूछा गया कि ये धनुष किसने तोडा तो प्रभु राम बोलो कि यह पुराना धनुष था हाथ लगाते ही टूट गया| परशुराम जी को इस पर विश्वास नहीं हुआ परन्तु जब परशुरामजी का अपना धनुष स्वयं चलकर श्रीराम जी के पास चला गया तो वो प्रभु श्रीराम और लक्ष्मणजी को पहचान पाए|

जय श्रीराम


Monday 5 October 2015

राम राम जी |

मनु जी मानव जाति के आदिपुरुष कहलाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति लिखी थी, इस स्मृति में मनुष्य के कर्मो के लिए एक प्रकार का संविधान लिखा था| वर्णाश्रम धर्म में चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) तथा चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) के लिए सारे दिशा निर्देश लिखे थे| किस प्रकार मनुष्य इन विधि विधान को मानकर अपना जीवन ख़ुशी से व्यतीत करे| महाराज मनु के शासनकाल में सर्वोच कोटि की व्यवस्था थी| कानून, व्यापारिक, सुरक्षा व्यवस्था आदि सब उच्चकोटि की थी| राजनीति के चारो चरण साम, दान, दण्ड और भेद व्याप्त थे| उन्होंने राष्ट्र का संचालन एक संविधान के अनुसार किया महाराजा मनु ने महसूस किया की राष्ट्र का संचालन बहिरंग दृष्टि से तो बहुत अनुकूल चलता हुआ प्रतीत होता है परन्तु उनके जीवन में संतोष और सुख कि अनुभूति नहीं हो रही| और इतनी सुंदर व्यवस्था भी आत्मसंतुष्टि नहीं दे पा रही| कहीं पर भी व्यवस्था अच्छी होने पर आरामदायक तो हो सकती है परन्तु अंदर से भी सुख और संतोष हो ये अनिवार्य नहीं है| अत: उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को सगुन रूप में प्राप्त करने का निर्णय लिया और अपनी पत्नी शतरूपा के साथ वन में जाकर कठोर तपस्या की| फलस्वरूप उन्होंने दशरथ जी के रूप में जन्म लिया और निर्गुण ब्रह्म सगुन रूप में श्रीराम के रूप में प्रगट हुए|
इतनी सुदृढ़ व्यवस्था होने पर भी महाराज मनु को शांति और संतोष क्यों ना था? अगर हम किसी समारोह में जातें हैं और वहां जूतो की व्यवस्था बहुत उत्तम हो तो हमें जूतो की सुरक्षा का अनुभव तो होगा परंतु यह विचार भी मन में आएगा की यहाँ जूतो की चोरी होने का भय अवश्य है तभी इसकी सुरक्षा का प्रबंध किया गया है। इस उदारहण से हम महाराज मनु की व्यवस्था पर प्रकाश डालने का प्रयत्न कर रहें हैं। मनु जी ने एक ऐसे राज्य की कल्पना की जहाँ पर कोई भी व्यवस्था ना करनी पड़े। मनुष्य अंदर से ही इतना बदल जाए की इस प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता ना पड़े और यह सिर्फ श्रीराम ही कर सकते हैं। तभी उन्होंने तपस्या कर के राम को पुत्र रूप में प्राप्त किया।
राम को राज्य मिलने में विध्न आया। क्योंकि जब तक अयोध्या में लोभ रूपी कैकयी और ईर्ष्या रूपी मंथरा है रामराज्य कैसे स्थापित हो सकता है।इन दो मतों के इलावा सारे मत श्रीरामजी के साथ थे परंतु श्रीराम बहुमत को नहीं पूर्णमत को मानते हैं और वनवास को अपनाते हैं। क्योंकि मात्र अयोध्या में रामराज्य स्थापित करना उनका उद्देश्य नहीं था जब तक लंका से भी असंत को मिटा दे अथवा उन्हें संत में परिवर्तित न कर दे तब तक यह रामराज्य का सपना अधूरा रहता।
रावण के दो दूत शुक और सारण तीन दिन तक वानरों के साथ रहे परंतु वानर उन्हें पहचान ना सके। ऐसी सुरक्षा व्यवस्था थी रामजी की सेना की।परंतु ये दोनों श्रीरामजी की बड़ाई करते हुए पकडे जाते हैं और फिर रावण के दूत ना होकर रामजी के दूत बन जाते हैं। ऐसा ह्रदय परिवर्तन रामजी करते हैं। दिलो को जीत कर ही रामराज्य स्थापित हो सकता था। दूसरी तरफ रावण की व्यवस्था में श्री हनुमानजी मच्छर के रूप में भी लंकिनी द्वारा पकडे जाते हैं और परिणाम में वह लंकिनी भी रामभक्त हो जाती है|
तुलसीदासजी कहते हैं कि रामराज्य में राजनीति के केवल दो चरण थे दण्ड निति और भेद निति का सर्वथा अभाव था, अगर लोग सन्यासियों के हाथ में दण्ड नहीं देखते तो शायद दण्ड शब्द को ही भूल जाते| संगीत में अगर सुर ताल का भेद नहीं होता तो भेद शब्द भी भूल जाते| दण्ड और भेद निति का उपयोग केवल पशुता को नियंत्रित करने के लिए है| अथार्त रामराज्य की राजनीति केवल दो चरणों पर टिकी हुई थी| तुलसीदास जी का मानना था अगर राजनीति पशुवत होगी तो चार चरणों कि आवशकता है और अगर मानव राजनीति होगी तो उसको केवल दो चरण ही चाहिए| रामजी ने समाज से दण्ड और भेद हटा दिए क्योंकि अगर जब तक दण्ड और भेद रहेंगे मानव समाज पूर्ण नहीं होगा|
जीव में जब तक ईर्ष्या रूपी मन्थरा है, लोभ रूपी कैकई है, मोह रूपी रावण है, काम रूपी मेघनाथ है, अहंकार रूपी कुम्भकरण है, पुन्य अभिमान रूपी बाली है, वासना रूपी सूर्पनखा है, तब तक रामराज्य की स्थापना एक स्वप्न है| रामराज्य में कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं थे और ना ही न्यायालय थे| सब निवासी अपने अपने कर्तव्य में लीन थे|

जय श्रीराम |


















Thursday 1 October 2015

जय रामजी की|

वर्णाश्रम धर्म मुख्यतः दो परम्पराओं को मान्यता देता है, वेद और वेदान्त | महाराज दशरथ वेद परम्परा को मानते हुए अपना राज्य चला रहे थे और महाराज जनक वेदांत परम्परा से अपने राज्य का शासन कर रहे थे| वेद परम्परा के अनुसार हमारे वेदों में जो लिखा है कि किस यज्ञ को करने से किया प्राप्ति होती है तथा किस कर्म से क्या फल मिलता है, भोगवादी होते हुए भी भोगो पर नियंत्रण रखते हुए जीवन यापन होता था, देह की इन्द्रियां नियंत्रण में रखते हुए अयोध्या के निवासी अपने अपने धर्म में लीन रहा करते थे तभी ईश्वर राम ने यज्ञ के फलस्वरूप अपने आप को अयोध्या में अवतरित किया| दशरथजी की विचारधारा, गुरु वशिष्ठ जो की विधि विधान को मानने वाले थे की जो वेदों में किसी भी कार्य को करने का विधान है उसी विधि के अनुसार चलकर ही धर्म कि व्याख्या करनी चाहिए, से प्रभावित थी| आसान शब्दों में सकामता की विचारधारा थी, अमुक कार्य के करने से अमुक फल की प्राप्ति हो जो इस देह से सम्बन्ध रखे| इसीलिए इसे देहनगर कहा जाता था| इस राज्य में कुछ गिनती के असंत को छोड़ दे तो बाकी सारे संत थे|

उसी समय एक दुसरे महाराजा श्रीजनक जी का भी राज्य था जहाँ का प्रत्येक निवासी वेदान्त की विचारधारा को मानने वाला था, अथार्त वेदों के विधि विधान से मुक्त, उनसे उपर उठे हुए, वो सब इस देह से उपर उठकर विचार करते थे, इस देह का उनकी नज़र में कोई मोल नहीं था, इसीलिए इसे विदेहनगर कहते थे| महाराज जनक इस ब्रहामांड के सबसे बड़े ब्रहमग्यानी कहलाये गए हैं| दूर दूर से ऋषि मुनि उनसे ब्रह्मज्ञान लेने आते थे| उनके लिए देह का उपयोग केवल ज्ञान अवम विचार के लिए था| रूप अवम राग से उपर उठे हुए थे, निष्कामता ही उनकी विचारधारा थी, किसी प्रकार के फल प्राप्ति की इच्छा से कोई भी कार्य नहीं किया जाता था| तभी ईश्वर ने अपने आप को दो भागो में विभाजित करके दुसरे भाग में सीता के रूप में, जनकजी के किसी प्रयास के बिना, अवतरित किया| इस राज्य में एक भी असंत नहीं था सारे ही संत थे|

एक तीसरी विचारधारा भी इन दोनो के समांतर  लंका में चल रही थी, वह थी देह्भोग की| लंका में रावण का राज्य था और वहां देह की इन्द्रियों के भोगो में ही निवासी लिप्त थे| वहां भोगो पर कोई नियंत्रण नहीं था| इसीलिए लंका को देह्भोगी नगर कहते थे| वहां एक दो को छोड़कर सभी असंत थे| यह अपने आप में बहुत सशक्त विचारधारा थी| और प्रान्तों के राजा जो महाराज दशरथ को भेंट दिया करते थे वो दशमुख को भी भेंट देते थे| लंका की व्यवस्था इतनी शक्तिशाली थी की श्री हनुमानजी के मच्छर रूप को भी लंकिनी ने पकड़ लिया था|
उस समय में दो महान ऋषि गुरु विश्वामित्र और गुरु वशिष्ठ भी  थे| जिनकी आपस की लड़ाई से शास्त्र भरे पड़े हैं| शास्त्र विद्या में गुरु वशिष्ठ और शस्त्र  विद्या में गुरु विश्वामित्र के समान कोई नहीं था परन्तु रावण के पास शास्त्र और शस्त्र दोनों का ही पूर्ण ज्ञान था वह समय आने पर शस्त्र और शास्त्र दोनों का उपयोग कर सकता था|

भगवान् परशुरामजी जो की भगवान् विष्णुजी के अवतार थे वह भी उसी समय थे| भगवान् परशुरामजी ने सहस्त्रार्जुन को पराजित कि था जिस सहस्त्रार्जुन ने रावण को पराजित किया था|
अब मन में एक प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि महाराज दशरथ, महाराज जनक, गुरु वशिष्ठ गुरु विश्वामित्र और भगवान् परशुरामजी के होते हुए भी श्रीराम को अवतार क्यों लेना पड़ा| क्या ये सब सक्षम नहीं थे रावण की विचारधारा को मिटाने के लिए|  अगर रावण को हराना या मारना ही एक मात्र उद्देश्य होता तो जो रावण बाली, सहस्त्रार्जुन और पाताल लोक के छोटे बालको द्वारा हराया जा चुका था उसे मारने के लिए श्रीराम को अवतार लेने की आवश्कता ही नहीं पड़ती|
इन सबका रावण को हराना केवल ऐसा ही है की बड़ी बुराई ने छोटी बुराई पर विजय प्राप्त की| क्यंकि इन सब की विचारधारा तो एक ही है| इनकी विचारधारा के रहते हुए रामराज्य स्थापित नहीं हो सकता था| श्री राम को केवल रावण का ही अंत ना करके उसकी विचारधारा का अंत करना था ताकि रामराज्य की स्थापना हो सके| वो केवल संभव था जब अच्छाई की बुराई पर विजय हो, ना की बुराई की बुराई पर विजय| तभी रावण और उसकी विचारधारा के अंत के पश्चात ही रामराज्य स्थापित हो सका, रामराज्य की स्थापना के लिए जो अयोध्या में असंत थे, केकई और मंथरा, उनके हृदय परिवर्तन की भी आवशकता थी|
अगले भाग में इस पर और चर्चा होगी|
जय श्रीराम |


Tuesday 30 December 2014

माँ शबरी और कबंध|

                                                 30.12.2014
जय श्री राम |



अक्सर आजकल के प्राणी श्री तुलसीदास जी को ब्राह्मण का समर्थक और नारी का आलोचक मानते हैं| और श्री रामचरितमानस में लिखे दो वाक्यों का उदारहण देते हैं|

सापत ताड़त परुष कहंता| विप्र पूज्य अस गावहिं संता||

अथार्त श्री राम कहते हैं –अरे कबंध! शाप देता हुआ और तारणा देता हुआ ब्राहमण भी पूज्य है| लोग पढकर कहते हैं कि ब्राह्मणवाद का इतना समर्थन?

ढोल गवांर सूद्र पसु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||

इससे निष्कर्ष निकालते हैं कि श्री तुलसीदास जी स्त्री और शूद्र दोनों के विरोधी थे |

हम जब श्रीरामचरितमानस का पाठ करते हैं तो इस विश्वास को लेकर चलना चाहिए की इस पुरे ग्रन्थ में श्रीतुलसीदासजी ने जिस भगवान रामजी की लीला और चरित्र को  गाया है वह भगवान् किसी का समर्थन और विरोध नहीं करता| हमारे समझने में त्रुटी है|

आओ समझे:-

श्रीरामजी ने कहा कि शाप देता हुआ और फटकारता हुआ ब्राह्मण भी पूज्य है इस वाक्य के पीछे श्रीरामजी का अभिप्राय था कि दुर्वासा जी के अवगुण तो तू देख रहा है पर इनके जीवन में जो तप है, त्याग है, गुण है और जो विशेषताएँ हैं उनके उपर तेरी दृष्टि नहीं जाती| (क्योंकि कबंध के कहने का अभिप्राय था कि दुर्वासा ब्राहमण होकर भी बहुत क्रोधी हैं) उनमे क्रोध की मात्रा कुछ अधिक है परन्तु श्राप का कारण तो आपकी अमर्यादा ही थी| कबंध उसे बोलते है जिसके शरीर पर सिर नहीं होता| बाकी सारा शरीर होता है अथार्त सिर के अंग को बोलते हैं ब्राहमण, जैसे पैरों को शूद्र कहते हैं| जबकि शरीर में सब कुछ होना चाहिए इस कबंध को क्योंकि ब्राहमण के प्रति विद्वेष बुद्धि और द्वेष वृति थी तो इसने कहा कि मै इस सिर के बिना ही काम चलाऊंगा| ब्राहमण की पूज्यता की बात श्रीराम उसके अंदर की जो द्वेष बुद्धि है उसको मिटाने के लिए कहते हैं| क्योंकि कबंध श्री दुर्वासा के शाप से दुखी था| अहल्या जब  श्री राम जी की चरणधूलि के स्पर्श से चेतन हुइ तो उसने अपने पति गौतम जी को याद करते हुए उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया जिसके शाप के कारण मुझ को श्री राम जी के दर्शन हुए| क्योंकि अहल्या की दृष्टि गुणदर्शन पर है और कबंध की दोषदर्शन पर| श्रीरामजी का अभिप्राय केवल कबंध के अन्तकरण में जो ब्राहमण के प्रति द्वेष भावना थी, केवल उसे ख़तम करना था|

 श्रीतुलसीदास जी ने ब्राहमण समर्थन का खंडन भी तुरंत ही कर दिया| श्रीरामजी कबंध से मिलने के पश्चात सीधे माँ शबरी के आश्रम पहुँचते हैं और जो माँ शबरी स्त्री और शूद्र दोनों हैं| माँ शबरी बोली प्रभु मै स्त्री हूँ और स्त्री में भी छोटी जाती की हूँ तब भगवान् ने स्पष्ट कह दिया मै तो जाती पाती को मानता ही नहीं हूँ| नारी और शूद्र के रूप में दिखाई देने वाली माँ शबरी को भगवान् ने जितना सम्मान दिया उतना सम्मान तो ब्राहमण वर्ण के किसी महात्मा को भी नहीं दिया| माता सीता का पता पूछने में श्रीराम जी ने माँ शबरी से उपयुक्त कोई पात्र रामचरितमानस में नहीं पाया| क्योंकि भक्त ही भक्ति देवी (माता सीता) का पता जानता है| श्री तुलसीदासजी ने ही माता सीता, माता अहल्या , माता अनुसुया, माँ शबरी, त्रिजटा, मंदोदरी, सुलोचना आदि की भी श्रेष्ठता सिद्ध की है| अगर श्रीतुलसीदास जी के मन में स्त्री जाती के प्रति कोई दुर्भावना होती तो माँ शबरी द्वारा झूठे बेर श्रीरामजी को खिलाने का प्रसंग वह कदापि ना लिखते|

प्रभु श्रीराम जी पूरी रामचरितमानस में अपनी भाषा को अपने भावो को पात्र अनुसार बदलते प्रतीत होते हैं| यही बात हमे समझनी होगी |

जब हम किसी लम्बी यात्रा से घर वापस लौटते हैं तो प्रियजन हमसे यात्रा के बारे में पूछते हैं अब सारी यात्रा का वर्णन तो संभव नहीं होता परन्तु जो जो विशेष होता है वही मनुष्य बखान करता है| उसी प्रकार श्रीरामजी जब वन से अयोध्या वापस आये तो सबने यात्रा के विषय में पूछा तो श्रीराम जी को पूरी वनवास यात्रा में दो ही पात्र याद रहे और वे थे माँ शबरी और जटायु गीध|  

अत: हमे भी अपनी दोष देखने की वृति को हटाकर गुण दर्शन की वृति को अपनाने का प्रयास करना चाहिए और यह केवल अपने भगवान् की भक्ति द्वारा ही संभव है|

जय राम जी की|




Wednesday 26 November 2014

लंका दहन|

                                                             27.11,2014
जय रामजी की |


सुन्दरकांड में श्री हनुमानजी ने लंका का दहन किया परन्तु श्रीराम जी ने तो ऐसा कोई आदेश उन्हें नहीं दिया था| फिर भी श्री हनुमानजी ने लंका जला डाली| प्रभु ने तो श्री हनुमान जी को सीताजी के सम्मुख  अपने बल और विरह का वर्णन सुनाने के लिए ही भेजा था|
श्री हनुमान जी हर कार्य को ह्रदय से विचार कर के किया करते थे जैसे श्री तुलसीदास जी ने बार बार लिखा कि..इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा....पूत रखवारे देखि बहु कपि कीन्ह बिचार .....तरु पल्लव महुं रहा लुकाई| करइ बिचार करों का भाई||.....कपि करि हृदयँ बिचार दीन्ह मुद्रिका डारि जब|| परन्तु लंका दहन करते समय श्रीहनुमान जी ने तनिक भी विचार नहीं किया|
जब श्रीहनुमानजी लंका  दहन करके प्रभु श्रीराम जी के पास लौट कर आये तो प्रभु ने पुछा कि आपने लंका जलाते समय विचार क्यों नहीं किया तो श्रीहनुमानजी बोले कि प्रभु लंका जलाई गयी है या जलवाई गयी है और अगर लंका जलवाई गयी है तो विचार भी जलवाने वाले ने किया होगा| और सत्य यह है कि मेरे पास लंका जलाने की योजना थी ही नहीं| परन्तु आपने मुझसे यह लंका जलवाई|
आओ समझे :-
रावण ने अनजाने में ही त्रिजटा जो जन्म से राक्षसी थी परन्तु तुरीयावस्था को प्राप्त थी जो की हम माता सीता को कहते हैं, उसे माता सीताजी की सेवा में नियुक्त किया था | तुरीयावस्था की परिभाषा करते हुए कहा जाता है जीवन में एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात् जब तक दूसरी इच्छा का उदय न हो, उसके बीच वाला काल ही तुरीय (समाधी ) काल होता है| अथार्त त्रिजटा एक पवित्र और उच्च अवस्था को प्राप्त कर चुकी थी | जब सारी राक्षसियाँ श्रीसीता जी को डराने लगी, तो त्रिजटा ने कहा मैंने एक स्वप्न देखा है कि एक वानर आया हुआ है और वह लंका को जलाएगा| त्रिजटा की यह बात सुनकर श्री हनुमानजी बड़े आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि मै तो बहुत छिपकर आया था पर धन्य है यह त्रिजटा जिसने ये सपने में भी देख लिया| परन्तु लंका दहन की बात सुनकर बड़ी दुविधा में पड़ गए| प्रभु ने तो इस पर कुछ नहीं कहा, और त्रिजटा के स्वप्न को अन्यथा भी नहीं ले सकते क्योंकि यह सत्य ही कह रही है कि एक वानर आया है|  और फिर इस समस्या का समाधान श्रीहनुमानजी ने बड़े सुंदर रूप में किया |
जब मेघनाद ने श्रीहनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो वह जानबूझकर गिर पड़े और मेघनाद के नागपाश से बाँधने पर वे बंध भी गए| श्रीहनुमानजी ने सोचा कि मुझे लंका दहन का आदेश नहीं दिया गया था परन्तु फिर भी अगर प्रभु इस कार्य को करवाना चाहते हैं तो मै अपने सारे कर्म छोड़ देता हूँ| और बंधन में बन्ध जाता हूँ| जिन कार्यो का आदेश आपने मुझे नहीं दिया था परन्तु उन्हें करने का स्पष्ट रूप से मुझे संकेत मिल रहे हैं, इसीलिए मैंने बंधन में पड़ना स्वीकार किया |  रावण की सभा में जब रावण के आदेशानुसार राक्षस तलवार लेकर मारने लगे तो श्रीहनुमानजी ने अपने को बचाने का किंचितमात्र भी उपाय नहीं किया और सोचा प्रभु मै तो बंधा हुआ हूँ अगर आपको बचाना है तो आप ही बचाए| जब श्रीहनुमानजी यह सोच ही रहे थे, ठीक उसी समय विभीषण जी आ गए और उन्होंने कह दिया कि दूत को मारना नीति के विरुद्ध है| फिर रावण ने पुन: आदेश दिया कि इसकी पूंछ में कपड़ा लपेट कर घी तेल डालकर आग लगा दो, तब श्रीहनुमानजी ने मन ही मन प्रभु को हाथ जोड़ के कहा—“प्रभु”! अब तो निर्णय हो गया| मेरा भ्रम दूर हो गया और मै समझ गया कि आपने ही त्रिजटा के हाथों सन्देश भेजा था| नहीं तो भला लंका को जलाने के लिए मै कहाँ से घी-तेल-कपड़ा लाता, और कहाँ से आग लाता| आपने तो अपनी इस योजना  को पूरा करने का सारा प्रबंध रावण से ही करवा दिया तो फिर मै क्या विचार करता| वस्तुत: जीव तो एक यंत्र के रूप में है, आप जिस तरह उससे काम लेना चाहेंगे, वह तो वही करेगा| इसीलिए मै कहता हूँ कि लंका आपने ही जलवाई|


जय श्रीराम |

Saturday 13 September 2014

राम राम जी |

आज कलयुग के युग में भी हम अपने चारो ओर हर जीव को भगवान् की प्राप्ति हेतु प्रयास करते हुए देखते हैं| कोई जीव कर्म के मार्ग पर चलकर, कोई ज्ञान के मार्ग  से, कोई भक्ति के मार्ग पर चलकर अथवा कोई और किसी मार्ग पर चलकर भगवान् को प्राप्त करने का प्रयास करता हुआ प्रतीत होता है| हर जीव भगवान्, धर्म, ज्ञान और मोक्ष की बातें करता है, प्राय: आजकल हर जगह, हर उम्र के जीव की बातों में ईशवर की चर्चा होती है प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी भक्ति, अपने अपने ज्ञान, अपने अपने श्रेष्ठ कर्मो की श्रेष्ठता को सिद्ध करता हुआ दिखाई पड़ता है| कई बार तो चर्चा के विषय को भी दुसरे के विषय से श्रेष्ठ साबित करता है| अथार्त श्रीराम को श्री कृष्ण से अथवा ईश्वर को अल्लाह से श्रेष्ठ बताने का प्रयास करता है| चर्चा कैसी भी हो परन्तु चर्चा का विषय आनंद तो देता ही है|

कोई जीव कर्म के मार्ग को कठिन बताता है, कोई कहता है भक्ति बहुत कठिन है, किसी जीव को ज्ञान का मार्ग समझ में नहीं आता| वह जिस मार्ग पर स्वंय चलता है उसको वह सरल और दुसरे मार्गो को कठिन कहता है अथवा उनमे दोष निकालने से भी नहीं चुकता, अपने पक्ष में वो हमारे मूल ग्रंथो का भी उदारहण देता है जो की सत्य होते हैं| और दूसरा व्यक्ति अपने मार्ग में पूर्ण श्रद्धा रखते हुए भी पहले के ज्ञान और तर्क की क्षमता के आगे अपने आप को बेबस पाता है| यह सब जानते हैं कि मंजिल सबकी एक है जैसे काशीजी  में अनेको लोग प्रतिदिन अलग अलग स्थान से और अलग अलग मार्गो से आते हैं पर पहुँचते काशीजी  में ही हैं|

अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर की प्राप्ति का कौन सा मार्ग हमें अपनाना चाहिए?

किसी जीव को ज्ञान मार्ग कठिन लगता है और किसी को भक्ति मार्ग| सरलता और कठिनता अथवा सुगमता और अगमता यह जीव जीव पर निर्भर है| जो व्यक्ति जिस कला में निपुण है, उसके लिए वही सुगम है, और जो निपुण नहीं है उसके लिए कठिन है|

जैसे काशीजी पहुँचने के मार्ग अलग अलग हैं, कोई किसी मार्ग से जाना पसंद करता है कोई किसी मार्ग से| कोई सड़क मार्ग से, कोई वायु मार्ग से कोई जल मार्ग से| हर जीव अपने सामर्थ्य, अपनी इच्छाशक्ति और अपनी योगत्या के अनुसार ही अपने गंतव्य स्थान की ओर चलने का विचार करता है| किसी की रीस करके अपना मार्ग बदलना उचित फल नहीं देता उसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति भी अपने ही चुने हुए मार्ग से की जानी चाहिए| पानी के उलटे बहाव को पार करने में जहाँ हाथी का बल काम नहीं आता और हाथी बहाव में बह जाता है वहीँ  छोटी सी मछली उलटे बहाव में भी तैर कर पार कर सकती है| और  अगर हम नमक और चीनी का मिश्रण बना कर उन्हें अलग अलग करना चाहें तो व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान और कार्यकुशल हो वह अपनी असमर्थता प्रकट करता है परन्तु यही कार्य एक छोटी सी चींटी बड़ी सरलता से कर देती है|

हमें सरलता और कठिनता शब्द में उलझने की आवश्कता नहीं है| किन्तु हमें तो यह निर्णय करना चाहिए की हमारे लिए सुगम क्या है और अगम क्या है| हमारे अन्दर जिस भाव की भी अधिकता हो हमें उसी भाव को अपना मार्ग बना कर अपने ईश्वर की ओर चलने की चेष्टा करनी चाहिए|
श्रीरामचरितमानस में माँ शबरी भक्ति भाव से प्रभु श्रीराम को प्राप्त करती है|

सुग्रीव डर भाव से (सुग्रीव बाली के डर से ही श्रीराम के चरणों में आता है ) श्रीराम को प्राप्त करता है|
विभीषण लालच भाव से ( जैसे सुग्रीव के भाई बाली को मारकर श्रीराम ने सुग्रीव को राजा बना दिया) श्रीराम को प्राप्त करता है|
राक्षस शत्रु भाव से श्रीराम को प्राप्त करते हैं|

गोस्वामी तुलसीदास जी से जब पूछा गया की आपके श्रीराम डर भाव से भी, शत्रु भाव से भी, लालच भाव से भी और अन्य भाव से भी भजने पर मुक्ति दे देतें हैं पर यह तो किसी भी शास्त्र में नहीं है| तो श्री तुलसीदास जी बोले यह मेरे श्रीराम के कृपा शास्त्र में है|

जय श्री राम





Friday 11 April 2014

श्रद्धा और विश्वास

जय राम जी की |
  
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्

भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥

यह श्रीरामचरितमानस के शुरू में ही श्री तुलसीदास जी ने लिखा है| आओ इस को समझने का प्रयास करें|

एक जीव के मन  में अनेको प्रकार के भाव उठते रहते हैं, कभी श्रद्धा का, कभी विश्वास का, कभी दया का, कभी क्रोध का, कभी परोपकार का, कभी अहंकार का, कभी काम का, कभी मोह का, कभी लोभ इत्यादि का| हर जीव इन अनेको भावो को महसूस करता है इसी कारण इसको विस्तार नहीं देते| यह सब भाव हर जीव केवल महसूस कर सकता है अगर हम जीव को किसी भी भाव को परिभाषित करने को कहें तो यह उस जीव के लिए अति कठिन कार्य होगा| चूँकि यह भाव हर जीव में उठते है तो दूसरा जीव इन भावो के नाम लेते ही इसे महसूस करके इस जीव की बात को समझ तो जाता है परन्तु वह भी इसे व्यक्त नहीं कर पाता| मुझे श्री राम भगवान् में विश्वास है यह सब कहते हैं पर विश्वास के भाव को व्यक्त करके समझा नहीं सकते| किसी भी भाव को हम आकार देने में समर्थ नहीं हैं| अगर कोई जीव विश्वास के भाव को समझना चाहे तो हम केवल उसे विश्वास के मिलते जुलते शब्द ही दे सकते हैं, समझाने में कठिनाई अनुभव करेंगे| श्रीरामचरितमानस में मुख्य मुख्य भावो को आकार दिया है जिससे प्राणी यह जान सके की वह अपने अच्छे भावो को कैसे  बल दे सके और निम्न भावो को ख़त्म कर सके|
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की वंदना करता हूँ|
अथार्थ श्रद्धा एक भाव है जिसका कोई रूप अथवा आकार नहीं होता उस श्रद्धा को माँ पार्वती का और विश्वास भाव को श्री शंकरजी का रूप देकर संबोधित किया है| श्रद्धा की मूर्ति माँ पार्वती हैं और विश्वास की श्री शंकर भगवान्| कैलाश पर्वत पर शंकर भगवान् विराजमान हैं, कैलाश पर्वत अचल और अडिग है अत: विश्वास भी अचल और अडिग होना चाहिए| भगवान् राम को हम सर्वश्रेष्ठ भाव (सच्चिदानंद) का रूप मानते हैं, श्री तुलसीदास जी ने श्री राम जन्म से पहले शिव पार्वती का प्रसंग भी इसलिए लिखा की जब तक जीव के ह्रदय में श्रद्धा और विश्वास नहीं होगा वह ईश्वर श्रीराम को जो की सर्वश्रेष्ठ भाव का रूप हैं, ह्रदय में धारण नहीं कर पायेगा| अगर जीव को अपने अंत:करण में ईश्वर को लाना है तो पहले जीव के हृदय में श्रद्धा और विश्वास को लाना होगा|

आओ इसे और विस्तार दें :-
भगवान् शिव और माँ सती श्री अगस्त्य जी के आश्रम में श्री राम कथा सुनने गए| वहां श्री अगस्त्य जी ने दोनों का पूजन अवम आदर सत्कार किया| भगवान् शिव ने सोचा की श्री अगस्त्य जी कितने महान होते हुए भी विनम्र हैं,  वक्ता होते हुए भी श्रोता का सम्मान कर रहें हैं और माँ सती जी ने सोचा की जो हमारा ही पूजन करता हो वह हमें क्या राम कथा सुनाकर ज्ञान देगा अत: माँ सती का श्री राम कथा में ध्यान ना लगा | जब वापस आते हुए माँ सती ने  श्री राम को पत्नी वियोग में रोते देखा, तथा शिवजी ने श्री राम को सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया तो मन में संशय उत्पन्न हो गया| माँ सती प्रजापति दक्ष की कन्या है| दक्ष का भाव बुद्धि से है| एक व्यक्ति किसी कार्य में दक्ष है अथार्थ वह बुद्धिमान है, तो माँ सती बुद्धि की पुत्री हुई और बुद्धि में संशय अवम तर्क-वितर्क का भाव रहता है| विश्वास भाव के साथ श्रद्धा होती है संशय अथवा तर्क-वितर्क कदापि नहीं| इसलिए विश्वास रूपी शिव ने बुद्धि की पुत्री का त्याग कर दिया| जब माँ सतीके ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ की योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म किया तो ईश्वर से वर माँगा की अगले जन्म में भी मुझे श्री शिवजी ही पति मिलें तो ईश्वर ने पुछा की क्या पिता भी बुद्धि {दक्ष} चाहिए तो माँ सती ने कहा अबकी बार चाहे मुझे पत्थर के घर जन्म दे देना जो की जड़ होता है परन्तु बुद्धि [दक्ष} पिता नहीं चाहिए | क्योंकि बुद्धि चलाये मान होती है और पत्थर जड़ होता है| और माँ सती का जन्म पर्वत राज {पत्थर } हिमालय के घर हुआ| और पर्वत के घर जन्म लेने से वह पार्वती कहलायीं| जब तक वह बुद्धि जो संशय और तर्क-वितर्क की थी श्रद्धा में परिवर्तित नहीं हुई, भगवान् शिव ने उसको नहीं अपनाया| माता पिता और सप्तऋषि ने चाहे कैसे भी इस श्रद्धा को विचलित करने का प्रयास किया हो यह श्रद्धा रूपी माँ पार्वती अडिग रही|  
इसी प्रकार मेघनाथ काम का भाव है, कुम्भकरण {जिसके घड़े के समान कान है और जो सदा अपनी प्रसंशा सुनना चाहता है} वह अहंकार का भाव है, रावण को मोह का प्रतीक कहा गया है| अथार्थ जीव का काम मर जाता है, अहंकार मर जाता है परन्तु मोह बड़ी ही कठिनाई से मरता है अत: श्री राम (सर्वश्रेष्ठ भाव ) को मोह को मारने में ही सबसे ज्यादा कठिन परिश्रम करना पड़ा| माता सीता को भक्ति,शक्ति और लक्ष्मी कहते हैं| श्री लक्ष्मण जी को वैराग्य,  श्री भरतजी को धरम का सार और श्री शत्रुघनजी को अर्थ के भाव का रूप दिया गया है| श्री हनुमान जी को सेवा, श्री सुग्रीव जी को डर अवम बालीजी को पुन्यभिमान का रूप बताया गया है|
श्री रामचरितमानस का पाठ करने से हमारे ह्रदय में जब श्रीराम (सर्वश्रेष्ठ भाव) आ जाता है तो सारे दूषित भावो का नाश होता है और जीव को इस प्रकार भक्ति प्राप्त होती है|

जय श्री राम